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Friday, May 30, 2025

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बिरसा मुंडा (धरती आबा) का वनवासी समाज के लिए संघर्ष और बलिदान

बिरसा मुंडा (धरती आबा): भारत सम्पूर्ण विश्व में अपनी विविधता के लिए विख्यात है। प्रांत, जाति, भाषा, रीति-रिवाजों न जाने कितने आधारों पर इसे विभाजित किया जा सकता है। इन सारी अनेकता के बीच हमें एकता के सूत्र में बाँधा है हमारे बलिदानियों के रक्त ने, जो हमें याद दिलाता है कि भारत की रक्षा के लिए हमारे पूर्वजों ने बलिदान दिया है तथा यदि देश पर किसी तरह का संकट आएगा तब हम इनकी रक्षा में सदैव तत्पर रहेंगे।

भारत के विभिन्न प्रांतों में बसी लगभग 750 जनजातियां जब अपने सपूतों की गौरव गाथा को याद  करती हैं, तो एक स्वर्णिम  नाम उभरता है  “बिरसा मुंडा” का। जिन्हें वनवासी बंधु प्यार से और श्रद्धा के साथ “धरती आबा – बिरसा मुंडा” के रूप में नमन करते हैं।

देश के संसद भवन में लगा बिरसा मुंडा का तैल चित्र और संसद परिसर में लगी उनकी मूर्ति जन-जन को याद दिलाती है कि अल्प शिक्षा, सीमित साधन और आधुनिक सुविधाओं  के अभाव के बावजूद वनवासी समाज ने देश को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए कम योगदान नहीं दिया है।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तिलक का “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” का मंत्र देश में गूंजा भी नहीं था उस वक्त गांधी और सुभाष का नाम भी राजनीतिक पटल पर नहीं आया था, तब झारखंड के छोटानागपुर के पिछड़े वनवासी इलाके में आजादी का शंखनाद और ब्रिटिश सत्ता को बिरसा मुंडा ने चुनौती देकर आश्चर्य में डाल दिया था।

छोटानागपुर की धरती ने 15 नवंबर 1875 के दिन इस लाल को जन्म दिया। खूंटी थाना के उलिहातु  गाँव में बृहस्पतिवार के दिन जन्म लेने के कारण इनका नाम बिरसा पड़ा।

बिरसा मुंडा के पिता सुगना मुण्डा और माता करमी हातु अत्यंत निर्धन परंतु परिश्रमी थे। माता ने खेत में काम करते हुए ही पुत्र को  जन्म दिया था और कपड़े के अभाव में पलाटी पत्ते में लपेट कर घर ले आई थी। इनके दो भाई और दो बहने थीं।  बिरसा के पिता उनको पढ़ा-लिखा कर ‘बड़ा साहब’  बनाना चाहते थे।

बिरसा मुंडा के पिता ने उन्हें मामा के घर भेज दिया जहाँ बिरसा ने भेड़-बकरियाँ चराते हुए शिक्षक जयपाल नाग से अक्षर ज्ञान और गणित की प्रारंभिक शिक्षा पाई। यहीं पर वे ईसाई धर्म प्रचारक के संपर्क में आए और निर्धनता एवं शिक्षा प्राप्त करने की चाह में उनके परिवार ने ईसाईयत को अपनाया।

बिरसा मुंडा ने ग्यारह वर्ष की आयु में बपतिस्मा लिया और उनका नाम दाऊद पूर्ति, इसी प्रकार पिताजी का नाम मसीह दास रखा गया। उन्होंने बुर्जू के स्कूल में प्राथमिक शिक्षा पाई और आगे की पढ़ाई के लिए चाईबासा के लुथरन मिशन स्कूल में दाखिल हुए।

चाईबासा स्कूल मिशनरियों का होने के कारण वहाँ बाइबल शिक्षा पर जोर दिया जाता था। छात्रावास में गोमांस दिया जाता था, मुण्डा परिवार जहाँ बिरसा का बचपन बीता, वहाँ गौ पूजन का विधान था और गोमांस खाना उनकी कल्पना से भी परे थी।

बिरसा मुंडा ने गोमांस खाने से इंकार कर दिया और अपने सहपाठियों को भी इससे परहेज करने के लिए कहा। यह बात जब स्कूल प्रबंधकों तक पहुँची तो बिरसा को फटकार मिली और स्कूल से निकाले जाने की धमकी भी दी गई।

मुण्डा जनजाति में शिखा (चोटी) रखने की परंपरा है जब एक दिन एक सहपाठी ने पीछे से उनकी शिखा कतर डाली तो उनका हृदय हाहाकार कर उठा, आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। स्कूल में मुण्डा लोगों को राक्षासी स्वभाव का बताना तथा उनके सनातन परंपराओं का उपहास उड़ाना उनको सहन नहीं हुआ। बिरसा मुंडा ने पादरी नट्राटे से कहा, “साहब – साहब एक टोपी हैं” यानि अंग्रेज पादरी और अंग्रेजी शासक एक ही हैं।

उसी समय बिरसा मुंडा ने यह संकल्प लिया कि वह एक भी क्षण भी चाईबासा में मिशनरियों के स्कूल में नहीं रुकेंगे और उसके बाद में वे बंदगाँव आए जहां उनकी उनकी भेंट वैष्णव धर्मावलंबी आनंद पाण्डे से हुई। जिनसे उन्होंने रामायण, महाभारत, हितोपदेश आदि के बारे में ज्ञान प्राप्त किया और सनातन संस्कृति को अपनाने का संकल्प लिया. उन्होंने, आगे चलकर मांसाहार छोड़ दिया, वे जनेऊ पहनने लगे, सर पर पीली पगड़ी बाँधने लगे और तुलसी की पूजा करने लगे।

बिरसा मुंडा ने तब अपने समाज के पिछड़ेपन और अज्ञानता  को खत्म करने के लिए दृढ़ संकल्प लिया। वनवासी समाज को विदेशी मिशनरियों, जमीनदारों, अंग्रेज शासकों तथा शोषणकर्ताओं से आज़ाद करने के लिए संगठित मुक्ति संघर्ष का आवाहन किया। उन्होंने वनवासी समाज को संगठन के सूत्र में बाँधने के लिए कई सभायें  की और उलगुलान क्रांति का शंखनाद  किया।

उलगुलान क्रांति क्या थी?

अंग्रेजों ने जमींदारी लागू कर दी और आदिवासियों के गांवों के खेतों को जमीदारों और दलालों में बांट दिया। इसके बाद आदिवासियों का शोषण होने लगा। बिरसा मुंडा ने इसके खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंका और ब्रिटिश शोषण के खिलाफ उलगुलान आंदोलन का नेतृत्व किया था। इस आंदोलन को नाम दिया गया, ‘उलगुलान’, जिसका अर्थ है जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी।

बिरसा मुंडा का प्रसिद्ध नारा था, “अबुआ दिशुम अबुआ राज”. इसका मतलब है, “हमारा देश, हमारा राज”. बिरसा मुंडा का मानना था कि आदिवासियों का हक उनके जल, जंगल और ज़मीन पर है.

बिरसा के इस शंखनाद  से वनवासी युवक  जाग उठे और चलकद क्रांतिकारी आंदोलन का केन्द्र बना। इसमें विरोध के प्रथम चरण के रूप में एक असहयोग आंदोलन शुरू किया गया जिसके बाद बिरसा मुंडा को ‘धरती आबा’ के रूप में जाना जाने लगे।

बिरसा मुंडा के इस आंदोलन से ब्रिटिश सरकार भौचक्की रह गई। ब्रिटिश सरकार ने तुरंत बिरसा को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। पुलिस ने गिरफ्तारी के लिए एक टुकड़ी को चलकद रवाना किया लेकिन गाँववालों के सशक्त विरोध ने बंदूकों से लैस पुलिस को भी भयभीत कर दिया. परंतु बिरसा मुंडा को पुलिस द्वारा छल प्रपंच से गिरफ्तार कर 25 अगस्त 1895 को हज़ारीबाग जेल लाया गया। बिरसा की गिरफ्तारी से उन्हें अनुयायियों मे अंग्रेजों से टक्कर लेने की इच्छा और बलवती हो गई।

30 नवंबर 1897 को जब बिरसा मुंडा रिहा हुए तो पूरा वनवासी अंचल जाग उठा। वे सब तीर धनुष के साथ आंदोलन की मांग कर रहे थे। अंग्रेजों से भीषण संग्राम के लिए प्रशिक्षण, संगठन, नीतियाँ और हथियार संग्रह का काम शुरू हुआ। बिरसा मुंडा और वनवासी समाज द्वारा शोषण और अन्याय के विरुद्ध लड़ाई शुरू हो गई, वनवासी योद्धाओं ने बिरसा के नेतृत्व में कई पुलिस थानों, गिरजाघरों, सरकारी कार्यालयों आदि को आग के हवाले कर दिया। जमीनदारों से अपने को मुक्त कराने के लिए लगान न देने और जंगल का अधिकार वापस लेने की बात कही गई। इन सबसे अंग्रेजी हुकूमत बौखला गई और कई बिरसाइतों को गिरफ्तार किया गया जिससे आंदोलन और उग्र हो गया।

बिरसाइतों का संबंध आदिवासी नेता और स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा से है, बिरसाइत को मानने वाले प्रकृति की पूजा, साफ-सफाई, और अहिंसा पर जोर देते हैं। बिरसाइत को मानने वाले लोग जंगलों, नदियों और प्रकृति की पूजा करते हैं तथा मांसाहार और शराब का सेवन भी नहीं करते हैं। 

9 जून 1900 के दिन बिरसा मुंडा झारखंड के खूंटी जिले में स्थित डोंबारी पहाड़ी पर सभा कर रहे थे। इसमें सभी वनवासी जाति के लोग जैसे मुण्डा, उराँव, संथाल, खड़िया, हो, माँझी लोग इकट्ठा हुए थे। हज़ारों की संख्या में वनवासी बिरसा के गीत गाते माथे पर चंदन लगाए, हाथ में सफेद और लाल पताका लिए एकत्रित हुए थे।

अंग्रेजों को खुफिया सूचना मिली की बिरसा मुंडा सभा कर रहे है। सूचना के आधार पर पुलिस कमिश्नर स्ट्रीट फील्ड सिपाहियों के साथ डोंबारी पहाड़ी पहुँचे और बिना किसी चेतावनी के अंधाधुंध गोलियाँ चलाना शुरू कर दिया। दोनों ओर से संग्राम आरंभ हो गया तोपों और बंदुकों के सामने तीर, धनुष, कुल्हाड़ी, भाला और पत्थर कहाँ टिक पाते, पूरी डोंबारी  पहाड़ी खून से लाल हो गई। बिरसा मुंडा आउने साथियों के आग्रह पर वनवासी आंदोलन को जीवित रखने के लिए वहाँ से  सुरक्षित जंगल में चले गए। परन्तु भेदियों की मदद से पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 9 जून 1900 के दिन ही इस महान वनवासी स्वतंत्रता सेनानी की रहस्यमय ढंग से राँची जेल में मृत्यु हो गई। माना जाता है कि उन्हें अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार करने के बाद उन्हें तीव्र जहर दिया गया था।

बिरसा मुंडा आज हमारे बीच नहीं हैं परन्तु वनवासी समाज के उत्थान के लिए उनके जलाए दीप आज भी जल रहे हैं। आज भी वनवासी समाज उनको धरती आबा के रूप में याद करता है। वर्तमान भारत की परिस्थिती में जनजाति समाज उपेक्षा, दरिद्रता, शोषण, विदेशी षडयंत्रों, दीनता आदि का शिकार बना है।

आज भारत के लिए आवश्यकता है कि ‘धरती आबा’ बिरसा मुंडा जैसे महान शहीदों और समाज के उत्थान के लिए अपना जीवन दान करने वालों के आदर्शों को साकार करते हुए सभी वनवासी जनजाति या अन्य जाति, वर्ण, में बंटे समाज को जातिगत बंधनों से मुक्त कराया जाए और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के एक सशक्त और विकसित भारत के निर्माण में सहयोग किया जाए।

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